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।।श्री गणपति अथर्वशीर्ष।।

गणपति जी की आराधना में सबसे सरल एवं श्रेष्ठ माने जाते हैं जो भी इस स्तोत्र का नित्य पाठ करते हैं उनके मनोभाव ही विशिष्ट होते हैं और उनके उपरी गणपति जी की विशेष कृपा प्राप्त होती है और जो भी बिद्यार्थी इस स्तोत्र का नित्य पाठ करते हैं उनकी बुद्धि नित्य बढ़ती है और वो कभी-कभी परीक्षण में नहीं आते हैं

ॐ नमस्ते गणपतये।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि
त्वमेव केवलं कर्ताऽसि
त्वमेव केवलं धृतऽसि
त्वमेव केवलं हर्ताऽसि
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि
त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम्।।1।।
ऋतं वाचमि। सत्यं वाचमि।।2।।
अव तव मां. अवार वक्तं.
अव श्रोतारं। एव दातरं।
अव धात्रं। अवनुचानमव शिष्यं।
अब बात है. और पुरस्तात.
अवकोटत्तात्। अव दक्षिणात्।
अवचोर्ध्वात्तत्।। अधरात्तत्।।
सर्वतो मां पाहि-पाहि समन्तात्।।3।।
त्वं वाङ महयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानंदमस्यास्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि।।4।।
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ:।
त्वं चत्वैरिवकपादनि।।5।।
त्वं गुणत्रयातीत: त्वमवस्थात्रयातीत:।
त्वं देहत्र्यातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यं।
त्वं शक्तित्रयात्मक:।
त्वं योगिनो ध्यानिन्ति नित्यं।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं
रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुव:स्वरोम्।।6।।
गणादि पूर्वमुच्चराय वर्णादिं तदनन्तरं।
अनुस्वार: परत:। अर्धेन्दुलसीतं।
तारेण रुद्धं। एतत्त्व मनुस्वरूपं।
गकार: पूर्वरूपं। अकारो मध्यमरूपं।
अनुस्वारश्चन्त्यरूपं। बिंदुरूत्तररूपं।
नाद: संधानं। सं हित विद्यासंधि:
साशा गणेश:। गणकऋषि:
निचृद्गायत्रीच्छन्द:। गणपतिर्देवता।
ॐ गं गणपतये नम:।।7।।
एकदन्ताय विद्महे।
वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दंती प्रचोदयात्।।8।।
एकदंतं चतुर्हस्तं पाशमांकुशधारिणम्।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम्।
रक्तं लंबोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्।
रक्तगंधाऽनुलिप्तांगं रक्तपुष्पयः सुपुजितम्।।
भक्तानुकंपिनं देवं जगतकारणमच्युतम्।
आविर्भूतं च सृष्टयादौ प्रकृतिते पुरुषात्परम्।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनं वर:।9।।
नमो व्रतपतये। नमो गणपतये।
नम: प्रमथपतये।
नमस्तेऽस्तु लम्बोद्रायैकदन्ताय।
विघ्ननाशिने शिवसुताय।
श्रीवरदमूरतये नमो नम:।।10।।
एतदर्थवशीर्ष योऽधीते।
स ब्रह्मभूयाय कल्पते।
स सर्व विघ्नैर्नबाध्यते।
स सर्वत्: सुखमेधते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।।11।।
संयमियानो दयकृतं पापं नाशयति।
प्रातरधियानो रात्रिकृतं पापं नाशयति।
संप्राप्तः प्रयुञ्जनोऽपापो भवति।
सर्वत्राध्यनोऽपविघ्नो भवति।
धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति।।12।।
इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्।
यो यदि मोहद्दस्यति स पापीयन् भवति।
सहस्राववर्तनात् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत्।13।।
अनेन गणपतिमभिश्चति
स वाग्मी भवति
चतुर्थ्यामनश्रन्न जपति
स विद्यावान भवति।
इत्यथर्वण्वक्यं।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यत्
न बिभेति कदाचनेति।।14।।
यो दूर्वान्कुरंर्यजति
स वैश्रवणोपमो भवति।
यो लेजैर्यजति स यशोवन् भवति
स मेधावन भवति।
यो मोदकसहस्रेण यजति
स वाञ्चित फलमवाप्रोति।
यः सस्यस्मिदभिर्यजति
स सर्वं लभते स सर्वं लभते।।15।।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्रहयित्वा
सूर्यवर्चस्वि भवति।
सूर्यग्रहे महानद्यं प्रतिमासंनिधौ
वा जप्त्वा सिद्धमंत्रों भवति।
महाविघ्नात्प्रमुच्यते।
महादोषात्प्रमुच्यते।
महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद्भवति से सर्वविद्भवति।
य एवं वेद इत्युपनिषद्।।16।।
अथर्ववेदीय गणपतिउपनिषद समाप्त।।
मंत्र
ॐ सहनाव वतु सहनो भुनक्तु सहवीर्यन्क्रवहे आयु नपूर्णतातमस्तु मा विदविषमहे।।

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टॉप्स पंडित जी

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